श्रीमद् भगवद् गीता का पहला अनमोल वचन यह सिखाता है कि जहां आपके लिए प्रेम और सम्मान नहीं है, वहां कभी नहीं जाना चाहिए।
महाभारत के युद्ध के आरंभ से पहले, जब पांडवों की ओर से शांति प्रस्ताव लेकर भगवान श्री कृष्ण हस्तिनापुर गए थे, तब शकुनि ने दुर्योधन को समझाते हुए कहा, “यह कृष्ण बड़ा मायावी है। यदि यह हमारे पक्ष में आ जाए, तो पांडव निश्चित ही हार जाएंगे। इसलिए इसकी सेवा करो, इसे अपने घर बुलाओ और इसे खुश करो।”
दुर्योधन ने श्री कृष्ण को अपने घर आने का निमंत्रण दिया और उनसे आग्रह किया, “आप मेरे घर पधारिए, मेरा आतिथ्य स्वीकार कीजिए और मेरे साथ भोजन कीजिए।”
लेकिन श्री कृष्ण ने दुर्योधन से कहा, “दुर्योधन, मनुष्य को किसी के घर तभी भोजन करना चाहिए और तभी जाना चाहिए जब या तो उसे उस व्यक्ति से गहरा प्रेम हो, या फिर उसके जीवन में कोई बड़ी आपत्ति आई हो। न तो मेरी जिंदगी में कोई आपत्ति आई है, और न ही तुम्हारे मन में मेरे लिए कोई प्रेम है। तुम मुझे अपने घर सिर्फ अपने स्वार्थ की पूर्ति के लिए बुला रहे हो। ऐसे मतलबी लोगों के घर जाना कभी उचित नहीं होता।”
इस प्रसंग से हमें यह महत्वपूर्ण शिक्षा मिलती है कि हमें सिर्फ वहीं जाना चाहिए और उसी के साथ समय बिताना चाहिए, जहां हमारे लिए सच्चा प्रेम और सम्मान हो। जहां आपकी कद्र नहीं हो, वहां जाना न केवल आपके आत्मसम्मान को ठेस पहुंचा सकता है, बल्कि यह समय और ऊर्जा की बर्बादी भी है।
इसलिए, अपने जीवन में हमेशा उन लोगों के साथ रहें, जो आपको प्रेम और इज्जत देते हैं। जहां आपकी कदर हो और आपको सच्चा मान-सम्मान मिले, वहीं पर अपने जीवन को आगे बढ़ाने का प्रयास करें।
श्रीमद् भगवद् गीता का दूसरा अनमोल वचन यह सिखाता है कि जिस रिश्ते में मर्यादाएं टूट जाती हैं, वहां अंततः केवल विनाश होता है।
किसी भी रिश्ते में, चाहे वह बड़ा हो या छोटा, मर्यादा और सीमाओं का पालन अत्यंत आवश्यक है। यदि कोई व्यक्ति रिश्ते में अपनी मर्यादाओं को लांघता है, तो वह रिश्ता कभी भी स्थायी नहीं रह सकता। रिश्ते तभी टिकते हैं, जब दोनों लोग एक-दूसरे का सम्मान करें, एक-दूसरे की कद्र करें और अपनी सीमाओं का पालन करें।
जहां सम्मान, विश्वास और सीमाएं नहीं होतीं, वहां रिश्ता धीरे-धीरे कमजोर हो जाता है। और जिस रिश्ते में इन मूलभूत तत्वों का अभाव हो, वह आज नहीं तो कल, समाप्त हो ही जाता है।
यह वचन हमें यह संदेश देता है कि किसी भी संबंध को बनाए रखने के लिए पारस्परिक सम्मान और मर्यादा सबसे महत्वपूर्ण हैं। हर रिश्ते में सीमाओं का होना रिश्ते की स्थिरता और सुंदरता बनाए रखने के लिए अनिवार्य है।
श्रीमद् भगवद् गीता का तीसरा अनमोल वचन यह सिखाता है कि इंसान के दुखों का सबसे बड़ा कारण उसका मोह है। मोह से अज्ञान उत्पन्न होता है और जीवन में समस्याएं यहीं से शुरू होती हैं।
महाभारत में धृतराष्ट्र का अपने पुत्र दुर्योधन से इतना गहरा मोह था कि वे उसे गलत काम करने से भी रोक नहीं सके। पुत्र मोह के कारण धृतराष्ट्र धर्म और सत्य का ज्ञान भूल गए, और अंततः उनका पूरा परिवार और राज्य बर्बाद हो गया। श्री कृष्ण ने अर्जुन से कहा था कि जब ज्ञान की धारा बहती है, तो सबसे पहले मोह को नष्ट करती है, क्योंकि मोह अज्ञान का ही रूप है।
यूनान के सम्राट सिकंदर का उदाहरण भी इस वचन को समझने में मदद करता है। सिकंदर पूरी दुनिया को जीतने का सपना देखता था। एक दिन, उसने एक साधु से मुलाकात की और कहा कि वह दुनिया जीतने के बाद क्या करेगा। साधु ने हंसते हुए कहा, “दुनिया जीतने के बाद क्या करोगे? क्योंकि इसके आगे कोई और दुनिया है ही नहीं।” साधु की बातों ने सिकंदर को निराश कर दिया। साधु ने समझाया, “तू दुनिया को जीतने के मोह में बंधा है, और यह मोह तुझे अंत में दुख ही देगा। जबकि मेरे पास कुछ भी नहीं है, फिर भी मैं हमेशा खुश हूं, क्योंकि मुझे किसी चीज़ का मोह नहीं है।”
सिकंदर ने दुनिया तो नहीं जीती, लेकिन साधु की बातों ने उसे यह सिखा दिया कि मोह हमेशा दुख का कारण बनता है। मोह घर, परिवार, सफलता, सुख-सुविधा, या मान-सम्मान का हो सकता है। जहां मोह रहेगा, वहां दुख आना तय है। मोह तब भी दुख देता है जब हमारी इच्छाएं पूरी होती हैं, और तब भी जब वे असफल हो जाती हैं।
श्री कृष्ण कहते हैं कि जब कोई मोह का त्याग कर देता है, तो उसे उनकी कृपा प्राप्त होती है। मोह से मुक्त व्यक्ति ही परम आनंद और शांति प्राप्त कर सकता है। इसलिए, मोह का त्याग करना चाहिए और जो हमारे पास है, उसी में संतुष्ट रहना चाहिए। अधिक पाने का मोह दुख का कारण बनता है, जबकि संतोष जीवन को सुखमय बनाता है।
श्रीमद् भगवद् गीता का पाँचवां अनमोल वचन यह सिखाता है कि दूसरों में सहारा ढूंढना छोड़ दें।
आपके मन की सबसे बड़ी कमजोरी यह होती है कि आप दूसरों में अपना सहारा ढूंढते हैं। यही आदत आपको कमजोर बनाती है और आपके आत्मविश्वास को खत्म कर देती है। जो लोग यह सोचते हैं कि कोई व्यक्ति उनका सहारा बनेगा और मुश्किल वक्त में उनका साथ देगा, वही लोग कठिन समय में सबसे ज्यादा अकेले और निराश हो जाते हैं।
आपको केवल ईश्वर को अपना सहारा बनाना चाहिए। जब भी कोई कठिनाई आएगी, ईश्वर किसी न किसी रूप में आकर आपकी मदद जरूर करेंगे। इस दुनिया को सहारा मत मानिए, क्योंकि जो खुद अपनी समस्याओं का सहारा ढूंढ रहे हैं, वे आपका सहारा कैसे बनेंगे? इसलिए अपना सहारा दुनिया को नहीं, बल्कि ईश्वर को बनाना चाहिए।
ईश्वर आपकी सुनते हैं या नहीं, यह आपके श्रद्धा, विश्वास और आस्था पर निर्भर करता है। सच्चे मन से ईश्वर को अपना सहारा बनाएं, और देखिए कि जीवन में कैसे हर मुश्किल आसान हो जाती है।
श्रीमद् भगवद् गीता का छठवां अनमोल वचन यह है कि अपने मन को शांत रखना सीखें।
अशांत मन जीवन में दुख और कष्ट के सिवाय कुछ भी नहीं देता। वहीं, शांत मन जीवन में प्रेम, आनंद और संतोष लाता है। सुख और दुख केवल आपके मन की स्थिति के परिणाम हैं। अशांत मन दुख को जन्म देता है, जबकि शांत मन परम आनंद की अनुभूति कराता है।
मन में शंकाओं को स्थान मत दीजिए, क्योंकि ये शंकाएं गलतफहमियों के पहाड़ खड़े कर देती हैं और जीवन से हर सुख-चैन छीन लेती हैं। श्री कृष्ण कहते हैं कि मनुष्य को अपने मन को वश में रखना चाहिए। जो व्यक्ति अपने मन पर नियंत्रण कर लेता है, उसका मन उसका सबसे बड़ा मित्र बन जाता है। लेकिन जो अपने मन को काबू में नहीं रख पाता, उसका मन ही उसका सबसे बड़ा शत्रु बन जाता है।
इस वचन का सार यही है कि अपने मन की स्थिति को समझें और उसे शांत रखने का प्रयास करें। शांत मन के साथ ही जीवन में सच्चा आनंद और संतोष प्राप्त किया जा सकता है।
श्रीमद् भगवद् गीता का सातवां अनमोल वचन यह सिखाता है कि जीवन में कभी भी खुद को किसी का जरूरतमंद या मोहताज मत बनाओ।
जब तक आप किसी के जरूरतमंद नहीं बनते, तब तक कोई भी आपको दुख नहीं पहुंचा सकता और न ही आपका फायदा उठा सकता है।
जिस दिन आप किसी के मोहताज बन गए, उसी दिन से आपको उसकी गुलामी करनी पड़ेगी। ऐसे लोग, जिनके आप जरूरतमंद हो जाते हैं, धीरे-धीरे आपका लाभ उठाना शुरू कर देते हैं। उदाहरण के लिए, अगर आप किसी नौकर, कामवाली, या सहायक के जरूरतमंद हो जाते हैं, तो वे जान जाते हैं कि आप उनके बिना नहीं चल सकते। ऐसे में वे आपको परेशान करना शुरू कर सकते हैं, क्योंकि उन्हें यकीन होता है कि आप उनके बिना अपना काम नहीं कर पाएंगे।
यही बात नौकरी और परिवार के संबंधों में भी लागू होती है। अगर आप किसी नौकरी में इस तरह फंस जाते हैं कि आपका मालिक जानता है कि आप उसके जरूरतमंद हैं, तो वह इसका पूरा फायदा उठाएगा। इसी तरह, परिवार में भी, अगर आप किसी के जरूरतमंद हैं, तो वे लोग आपका नियंत्रण अपने हाथ में ले लेंगे। वे आपकी प्रतिभा को कुचलने और आपके पंख काटने की कोशिश करेंगे ताकि आप कभी आगे न बढ़ पाएं।
इस वचन से यह सीख मिलती है कि जरूरतमंद होना आपको कमजोर बना देता है। यह स्थिति केवल शारीरिक या काम से जुड़ी जरूरतों तक सीमित नहीं है, बल्कि भावनात्मक जरूरतमंद होना भी उतना ही घातक है। अकेलेपन से बचने के लिए जब आप ऐसे लोगों से जुड़ जाते हैं, जो आपकी भावनात्मक कमजोरी का फायदा उठाते हैं, तो वे आपकी जिंदगी को और भी कष्टदायक बना देते हैं।
श्री कृष्ण हमें यह समझाते हैं कि मां-बाप के अलावा दुनिया में ऐसा कोई नहीं है जो आपके जरूरतमंद होने का लाभ न उठाए। इसलिए, जीवन में कभी भी खुद को इस स्थिति में मत लाओ कि आप किसी के मोहताज बन जाओ। आत्मनिर्भर बनना ही सच्चा सुख और स्वतंत्रता है।
याद रखें, आपका सारा दुख वहीं से आता है, जहां आप जरूरतमंद होते हैं। इसलिए, अपनी ताकत और आत्मनिर्भरता पर भरोसा रखें और अपने जीवन को किसी का मोहताज बनने से बचाएं। यही सच्ची स्वतंत्रता और आत्म-सम्मान का आधार है।
श्रीमद् भगवद् गीता का आठवां अनमोल वचन यह है कि अपनी खुशी और अपना दुख हर किसी के सामने व्यक्त न करें।
हर व्यक्ति आपकी खुशी से खुश नहीं होता। कई लोग आपकी खुशी से जलते हैं और आपके दुख में आपकी हंसी उड़ाते हैं। यही कारण है कि अपनी भावनाओं को सभी के साथ साझा करना समझदारी नहीं है। कहा गया है, “हर वक्त आंसू आंखों में मत लाओ और अपने जख्म सबको मत दिखाओ।” लोग हाथ में नमक लिए घूमते हैं और आपके घावों पर छिड़कने का मौका ढूंढते हैं।
दुखी इंसान को और अधिक दुखी करना और खुश इंसान को तकलीफ पहुंचाना कुछ लोगों की आदत होती है। इसलिए अपने मन की स्थिति केवल उसी को बताएं जो उसे समझ सके और आपकी भावनाओं की कद्र करे। अपनी खुशी और दुख को संभालकर रखना ही जीवन में सच्चा विवेक है।
श्रीमद् भगवद् गीता का नौवां अनमोल वचन यह है कि जीवन में जो कुछ भी होता है, वह अंततः अच्छे के लिए होता है।
यह वचन सुनने में सरल लगता है, लेकिन इसे स्वीकार करना मुश्किल हो सकता है, खासकर जब हम दुख, कष्ट या कठिन परिस्थितियों का सामना कर रहे होते हैं। जब जीवन में कोई अपना हमें चोट पहुंचाता है या हमारे साथ कुछ अनुचित होता है, तो ऐसा लगता है मानो पूरी दुनिया हमारे खिलाफ हो गई हो।
लेकिन सच्चाई यह है कि ये कठिनाइयां हमें और अधिक मजबूत और परिपक्व बनाती हैं। ये हमें यह पहचानने में मदद करती हैं कि कौन हमारा सच्चा मित्र है और कौन नहीं। यह स्थिति एक बच्चे की तरह है जिसे उसकी मां कड़वी दवाई पिलाती है। वह दवाई बच्चे को पसंद नहीं आती, लेकिन वही उसकी बीमारी को खत्म करती है।
जीवन की हर घटना, चाहे वह सुखद हो या दुखद, किसी न किसी उद्देश्य के साथ आती है। हमें बस उस उद्देश्य को समझने के लिए धैर्य और विश्वास बनाए रखना चाहिए।
श्रीमद् भगवद् गीता का दसवां अनमोल वचन यह है कि जो आपके साथ अन्याय करे, उसे दंड देना चाहिए।
किसी के अत्याचार को सहना उचित नहीं है। अगर आप किसी के गलत व्यवहार को सहते हैं, तो वह व्यक्ति और अधिक गलत करता रहेगा। श्री कृष्ण ने महाभारत में अर्जुन को यही समझाया था। जब अर्जुन ने कहा कि वह अपने भाई-बंधुओं के खिलाफ युद्ध कैसे कर सकता है, तब श्री कृष्ण ने उसे समझाया कि वे अधर्मी हैं और पाप के पक्ष में खड़े हैं।
अगर ऐसे पापियों को नहीं रोका गया, तो वे और अधिक पाप करेंगे। उसी प्रकार, जब आपके साथ कोई गलत करता है और आप उसे सहन करते हैं, तो आप भी उस पाप में भागीदार बन जाते हैं। जब आप अन्याय का विरोध करते हैं, तभी सामने वाला अपनी सीमा में रहना सीखता है।
कलयुग में आपको अपनी रक्षा स्वयं करनी होगी। अगर कोई आपके साथ गलत करता है, तो उसे कभी न सहें। उसका डटकर सामना करें और उसे यह सिखाएं कि आप कमजोर नहीं हैं। अन्याय को सहन करना अधर्म का समर्थन करने के समान है। इसीलिए अपनी रक्षा और सम्मान के लिए हमेशा खड़े रहें।
श्रीमद् भागवत गीता का 11वां अनमोल वचन यह है कि मनुष्य के जीवन में तीन प्रमुख अवस्थाएं होती हैं: बचपन, जवानी, और बुढ़ापा।
इसके बाद शरीर समाप्त हो जाता है, लेकिन आत्मा अमर रहती है और पुनः जन्म लेती है। जब तक मनुष्य अपनी इच्छाओं और वासनाओं से मुक्त नहीं होता, तब तक आत्मा को मोक्ष नहीं मिलता और उसका पुनर्जन्म होता रहता है।
जीवन में इच्छाओं और वासनाओं की अधिकता से खुशियां घटती जाती हैं। अगर आप जीवन में खुश नहीं हैं, तो इसका कारण आपकी असीम इच्छाएं और वासनाएं हैं। सच्ची खुशी तब मिलती है जब आप अपनी इच्छाओं को नियंत्रित करना सीखते हैं। इसे एक सरल गणितीय उदाहरण से समझा जा सकता है:
अगर आपके पास 100 खुशियां हैं और 10 इच्छाएं हैं, तो आपकी खुशी 90% रहती है। अगर इच्छाएं 50 हो जाती हैं, तो आपकी खुशी आधी हो जाती है। और अगर इच्छाएं 100 हो जाती हैं, तो आपकी खुशी शून्य हो जाती है। इच्छाओं की संख्या जितनी बढ़ती है, खुशी उतनी ही कम होती जाती है और अंततः दुख में बदल जाती है।
इस शिक्षा का सार यह है कि जितना आप अपनी इच्छाओं को नियंत्रित करेंगे, उतनी ही आपकी खुशियां बढ़ेंगी। इच्छाओं को बढ़ाते रहने से दुख आपके जीवन में प्रवेश करेगा। इसलिए खुश रहना है तो इच्छाओं को कम करना सीखिए और संतोष की ओर बढ़िए।
श्रीमद् भागवत गीता का 12वां अनमोल वचन यह है कि जीवन में धोखा अक्सर अपने ही लोग देते हैं क्योंकि वे आपकी कमजोरियों को जानते हैं।
बाहर से कोई आपको धोखा नहीं दे सकता क्योंकि वह आपकी कमजोरी से अनजान होता है। लेकिन जो आपका अपना है, उसे यह अच्छी तरह पता होता है कि आपकी कमजोरी क्या है और कैसे आपको नुकसान पहुंचाया जा सकता है। यही कारण है कि हमें अपने अपनों से भी सावधान रहना होता है। महाभारत में भी दुर्योधन ने बार-बार अपने भाई भीम को मारने की साजिश की, और जहर देने की कोशिश की।
ज्यादातर लड़ाइयाँ घर के भीतर ही लड़ी जाती हैं, और यही से धोखा भी आता है। इसलिए हमें यह समझना चाहिए कि चोट वही लोग पहुंचा सकते हैं जो हमारे अपने हैं।
श्रीमद् भागवत गीता का 13वां अनमोल वचन यह है कि सत्य और ईश्वर की शक्ति के साथ खड़ा व्यक्ति दुनिया की कोई भी ताकत परास्त नहीं कर सकती, चाहे पूरी दुनिया उसके खिलाफ क्यों न हो।
भगवान श्री कृष्ण ने गीता में यह शिक्षा दी है कि जहां योगेश्वर कृष्ण और धनुर्धर अर्जुन होते हैं, वहां विजय और समृद्धि होती है। धृतराष्ट्र ने बार-बार संजय से पूछा था कि युद्ध में कौन जीत रहा है, और कौन हार रहा है। उनका विश्वास था कि भीष्म पितामह, द्रोणाचार्य और कर्ण जैसे महान योद्धाओं के साथ उनका पक्ष मजबूत है, और विजय उनके हाथ में होगी।
लेकिन संजय ने उन्हें बताया कि जहां भगवान श्री कृष्ण होते हैं, वहां शक्ति का कोई महत्व नहीं होता। सत्य और धर्म की जीत निश्चित होती है। जब ईश्वर और सत्य किसी के साथ होते हैं, तो उसे कोई भी शक्ति पराजित नहीं कर सकती। यही कारण है कि अंत में विजय सत्य और धर्म की होती है।
श्रीमद् भागवत गीता का 14वां अनमोल वचन यह है कि कभी यह मत सोचिए कि आत्मा के लिए कुछ भी संभव नहीं है,
क्योंकि ऐसा सोचना सबसे बड़ी भूल है। यह कहना कि आप निर्बल हैं, अपने आप को ही पाप में डुबोने जैसा है। हम वही हैं जो हमारी सोच ने हमें बनाया है, इसलिए यह अत्यंत महत्वपूर्ण है कि आप क्या सोचते हैं।
पुरानी कहानी है एक राजा की, जिसे उसके गुप्तचर ने बताया कि पड़ोसी राज्य की सेना तीन दिनों में उस पर हमला करने वाली है। राजा घबराया और सभा बुलाई। एक चतुर मंत्री ने कहा, “यदि हम तीन दिन बाद मारे जाने वाले हैं, तो क्यों न हम पहले हमला कर दें?” राजा ने संकोच किया, क्योंकि उनकी सेना छोटी थी। मंत्री ने जवाब दिया, “पड़ोसी राज्य की सेना अभी युद्ध के लिए तैयार नहीं है, अगर हम पहले हमला करते हैं तो हम उन्हें हरा सकते हैं।”
राजा ने मंत्री की सलाह मानी और तुरंत अपनी सेना तैयार की। वे युद्ध के लिए गए, और अपनी पूरी ताकत से लड़े। इस कहानी से यह शिक्षा मिलती है कि जब आपके पास कोई और विकल्प नहीं बचता, तो संघर्ष करने से ही सफलता की संभावना बढ़ जाती है। यही सिद्धांत जीवन में भी लागू होता है: अगर आप दृढ़ निश्चय के साथ किसी कार्य को करते हैं, तो सफलता निश्चित रूप से मिलती है।
श्रीमद् भागवत गीता का 15वां अनमोल वचन यह है कि भगवान श्री कृष्ण सत्व, रजोगुण, और तमोगुण से बने हैं।
इसका अर्थ है कि हर व्यक्ति में अच्छाइयां और बुराइयां दोनों होती हैं। कोई भी व्यक्ति केवल अच्छा या केवल बुरा नहीं होता। अगर आप चाहें, तो आप सबसे अच्छे इंसान में भी बुराई देख सकते हैं, और सबसे बुरे इंसान में भी अच्छाई ढूंढ सकते हैं।
अगर आपको लगता है कि आपके अंदर कुछ कमियां हैं और इसी कारण आप जीवन में आगे नहीं बढ़ पा रहे हैं, तो यह आपकी सबसे बड़ी गलतफहमी है। दूसरों की आलोचनाओं पर ध्यान देने की आवश्यकता नहीं है। आजकल अधिकतर लोग दूसरों को केवल उनकी बुराइयों के दृष्टिकोण से ही देखते हैं, और अपनी अच्छाइयों को ही महत्व देते हैं।
जो लोग आपकी आलोचना करते हैं, उनकी बातों से प्रभावित होने की जरूरत नहीं है। जो आपके नियंत्रण में है, उस पर ध्यान दीजिए और उसे सुधारने का प्रयास कीजिए। जो आप बदल नहीं सकते, उन चीजों के बारे में दुखी होना व्यर्थ है। यह शिक्षा हमें आत्मविकास की प्रेरणा देती है। अपनी अच्छाई और गुणों को निखारिए, लेकिन उन बातों के बारे में चिंता न करें, जिन्हें आप बदल नहीं सकते। अपनी कमजोरी को स्वीकार करके ही आप एक सशक्त व्यक्ति बन सकते हैं।